भूपेंद्र कैंथोला, निदेशक, एफटीआईआई
मैं संक्षेप में अपना परिचय दूं तो मेरा गांव चोपड़यूं, पट्टी घुड़दडस्यूं, ब्लॉक पाबौ, पौड़ी गढ़वाल है। पिछले तीन साल से मैं प्रसिद्ध भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान (एफटीआईआई) का निदेशक हूं। मैं जनरल भट्ट का शुक्रगुजार हूं कि उन्होंने मेरे मन की बात पहले कह दी। अगर भारतवर्ष में 20 आईआईटी और आईआईएम हो सकते हैं तो कोई कारण नहीं कि सिर्फ दो फिल्म इंस्टीट्यूट हों। एक पुणे में और एक कलकत्ता में। इतने बड़े देश में जहां इतने बु़द्धिमान लोग हैं और जहां इतना रोजगार मिलता होता है।
अकेले मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में 40 लाख से ज्यादा लोगों को रोजगार मिला हुआ है। अगर उत्तराखंड में शासन को कोई डॉक्यूमेंट्री बनानी होती है तो उसे दिल्ली या मुंबई से फिल्म निर्माताओं को बुलाना पड़ता है। वह यहीं के लोग क्यों नहीं बना सकते, यदि हम उनको ट्रेंड करें। जनरल भट्ट के साथ मिलकर एफटीआईआई ने कश्मीर के लोगों के लिए पिछले दो साल में बहुत सारे कोर्सेस तैयार किए। डिजिटल फिल्म प्रोडेक्शन, एक्टिंग, अभिनय, स्टिल फोटोग्राफी, पटकथा लेखन जैसे अनेक कोर्सेस हमने कश्मीर घाटी में किए हैं।
मैंने देखा कि पहाड़ी लोगों में आर्ट के लिए एक सेंसीबिलिटी होती है। खुद उत्तराखंड में रूद्रप्रयाग, हल्द्वानी, नैनीताल, देहरादून, आईआईटी रूड़की और हरिद्वार ऐसी जगहों पर एफटीआईआई ने पिछले दो साल में कोर्सेस कंडक्ट किए हैं और मैंने पाया है कि यहां पर बहुत टैलेंट है, लेकिन जागरुकता शून्य के बराबर है। लोग यहां पर सिनेमा को एक मनोरंजन शब्द समझते हैं जबकि सिनेमा एक हुनर है, एक कला है और जैसे लोग इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई करते हैं वैसे ही सिनेमा की भी पढ़ाई होती है।
ये लोग मानने को तैयार ही नहीं है कि सिनेमा की भी पढ़ाई होती है। एक्टर बनने के लिए क्या पढ़ाई करनी होती है, निर्देशक बनने की लिए क्या पढ़ाई करनी होती है लेकिन करनी होती है। भारत सरकार पिछले 60 साल से एफटीआईआई को वित्त पोषित नहीं करती। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद वहां तीन साल के कोर्सेज होते हैं। यहां पर मैं एक छोटी सी बात कहना चाहूंगा कि हर साल जो एंट्रेंस एग्जाम एफटीआईआई के लिए लिखे जाते हैं उनमें से सबसे कम नंबर के कैडिडेट उत्तराखंड से होते हैं।
यहां से मुश्किल से तीस लोग लिखते हैं जबकि जम्मू से 70 लोग लिखते हैं और मुंबई-दिल्ली की तो बात छोड़ ही दीजिए, यहां से 1200 से 1400 लोग लिखते हैं। लेकिन यहां उत्तराखंड से तीस और कई वर्ष बीत जाते हैं जब उत्तराखंड से एक कैंडिडेट एफटीआईआई पहुंचता है। यदि यहां पर राज्य सरकार केंद्र को लिखे और एक एफटीआईआई का प्रादेशिक केंद्र खोलने की गुजारिश करे और केंद्र सरकार मुझे निर्देश दे तो मैं अविलंब यहां आकर उस दिशा में प्रयास शुरू करूंगा। दूसरी बात मैं यह कहना चाहता हूं कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बहुत सी बातें कही गई पर हम छोटे स्तर पर भी इसकी शुरूआत कर सकते हैं। मैंने अकेले दस परिवारों को खिर्सू भेजा है घूमने के लिए।
ये पुणे में वे परिवार थे जो घूमने के लिए कुल्लू- मनाली जाना चाहते थे और मैंने उनको खिर्सू भेजा। यदि मुझ जैसा एक आदमी 10 परिवारों को यानि 40 लोगों को खिर्सू भेज सकता है तो उत्तराखंड से बाहर रहने वाले एक लाख प्रवासी तो 40 लाख लोगों को यहां भेज सकते हैं। तीसरी और अंतिम बात मैं यह कहना चाहता हूं कि हमारे उत्तराखंड के स्कूलों में अंग्रेजी की हालत बहुत दयनीय है। ठीक नहीं बोल पाने से बच्चे हीन भावना से ग्रस्त हैं।
पिछले 11 साल से लगातार मैं अपने गांव के बच्चों को गर्मियों में इंग्लिश पढ़ाने जाता हूं। इस साल तो मैं एक टीचर को ले गया था और 12वीं कक्षा के बच्चों की इंग्लिश सुनकर वह बहुत निराश हुआ। 12वीं का एक भी छात्र या छात्रा इंग्लिश का वाक्य सही नहीं बना पाए। इसलिए मैं यहां पर बैठे सभी लोगों से गुजारिश करता हूं कि साल में एक हफ्ते अपने गांव जाकर श्रमदान करके यहां के बच्चों को पढ़ाएं।












